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( १७० । शरण को प्राप्त हों।" महाराज ने कहा-"श्यामावती । मैं तेरी और महात्मा बुद्ध दोनो की शरण हूँ।" '. मागंधी इस घटना से भयभीत होकर भाग गई । पर वह शांत न रही और फिर एक दिन जब राजा कौशांबी से कहीं दूर चले गए थे, अवकाश पा उसने श्यामावती के प्रासाद के कपाट बद करा के आग लगवा दी जिससे वह अपनी सखियों समेत जल कर नष्ट हो गई । जब राजा कई दिनों के बाद कौशांबो पहुँचे तो उन्हें श्यामावतो के दहन का समाचार सुनकर बड़ा खेद हुआ । वे.समझ गए कि यह सब करतूत मागंधो को है। इस पर उन्होंने मागंधी का इष्ट-मित्र सहित नाश कर दिया। - माय मर गड रनई सरसं पता । सं संबुद्धी महाराज रसयुद्धो अनुत्तरो। परसंगम त उहने सरकभर