एक मैं ही स्थिर हूँ, और शेष सब चल रहे हैं, और सब से अधिक तुम।" अंगुलिमाल को भगवान् की यह बात सुन ज्ञान उत्पन्न हो गया । वह उनके चरणों पर गिर पड़ा और भगवान ने उसे साय लिए जेतवन में आ उसे पान और चीवर दे भिक्षु बना दिया। उस दिन सायंकल को जब महाराज प्रसेनजित् महात्मा बुद्धदेव के दर्शन के लिये श्राए,तब उन्होंने भगवान् बुद्धदेव से अंगुलिमाल के पकड़ने के लिये स्वयं प्रस्थान करने की अपनी इच्छा प्रकट कर के उनका आशीर्वाद माँगा। महाराज की बातें सुन भगवान बुद्धदेव ने हंसकर अंगुलिमाल की ओर संकेत कर के कहा-'राजन् ! अंगुलिमाल तो आपके पास ही बैठा है । आप किते पकड़ने जाइ- एगा ?" महाराज उनका यह वचन सुन और अंगुलिमाल को प्रशांत भिक्ष रूप में देख अत्यंत विस्मित हो वहाँ से अपने प्रासाद को पधारे । उस वर्ष भगवान् बुद्धदेव ने अपना चौदहवाँ चातुर्मास्य श्रावस्ती के जेतवन विहार मे व्यतीत किया।
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