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पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/२०४

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(३०) उन्नीसवाँ और वीसवाँ चातुर्मास्य __ भगवान् बुद्धदेव अपना अठारहवाँ चातुर्मास्य राजगृह में कर के देशाटन को निकले और देशाटन करते हुए अपना उन्नीसवाँ चातुर्मास्य चालिय पर्वत में व्यतीत कर राजगृह लौट आए और गृध्रकूट पर ठहरे । देवदत्त तो पहले ही से उनके प्राण लेने के प्रयत्न में लगा था; एक दिन जब भगवान् बुद्धदेव नगर में भिक्षा के लिये पधारे तो उसने अजातशत्रु से मंत्रणा कर के नालागिरि नामक मत्तं हाथी को छुड़वा दिया । पर मच हावी भगवान् बुद्धदेव के सामने कुत्ते की तरह बैठ गया और उन पर आक्रमण न कर सका। देव- दत्त जव हाथी से उनके प्राण लेने में अकृतकार्य हुआ, तब लजित होकर उनके मारने के लिये उसने धनुर्धरों को नियत किया, पर वे लोग भी उनके मारने में असमर्थ हुए। निदान हारकर देवदत्तने भग- वान् बुद्धदेव पर जब वह गृधूकूट पर्वत के नीचे से जा रहे थे, ऊपर से पत्थर लुढ़का दिया, जिससे भगवान बुद्धदेव के वाएं पैर के 'अँगूठे में चोट आ गई। भगवान् को इस चोट से अधिक व्यथा हुई, जिसकी चिकित्सा के लिये उन्होंने जीवक नामक चिकित्सक को बुलाया । यह जीवक राजगृह का रहनेवाला था और तक्षशिला के विद्यालय में इसने शिक्षा प्राप्त की थी। यह अट्ठारह विद्याओं और चौंसठ कलाओं का जानकार था। महारांज विवसार ने इसे अपने दरवार में राजवैद्य नियत किया था। यह भगवान बुद्धदेव का बड़ा भक्त था और संघ की धर्मार्थ. ,