पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/२४७

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( २३४ ) राजामुखं मनुस्सानं नदीनं सागरो मुखं ॥ . नक्खत्तानं मुखं चन्दो आदिच्चो तपतं मुखं । पुखं आकखमानानं, संघो वे यजनं मुखं ।। यज्ञों में अग्निहोत्र श्रेष्ट है, छंदों में सावित्री श्रेष्ठ है, मनुष्यों में राजा प्रधान है, नदी आदि जलाशयों में समुद्र सब से महान् है, नक्षत्रों में चंद्रमा सब से प्रकाशित और तपनेवालों में सूर्य महान् है, सब इच्छित कर्मों में पुण्य श्रेष्ठ है और यजन में श्रेष्ठ संघ वा ब्रह्मज्ञानी पुरुपों का सत्संग है। । - महात्मा बुद्धदेव ने कोकालीय सुत्त में कुभीपाक, असिपनवन, वैतरणी आदि नरकों का उसी प्रकार वर्णन किया है जिस प्रकार उनका वर्णन पुराणादि में मिलता है । यथा एक बार महाराज विव- सार को उन्होंने श्राद्ध करने का उपदेश दिया था, जिसमें उन्होंने ब्राह्मण और श्रमण-भोजन के फल का दान उन मृत बंधुओं की आत्मा का जिनके उद्देश से, श्राद्ध किया गया था, आह्वान करा के दिलाया था । ... :

भगवान बुद्धदेव ने गृहस्थों को दश-लक्षणात्मक धर्म का उसी.

. * उत्सर्ग का मन्त्र जिसका प्रय तक यौद्धों में प्रचार है, पद है। भम्तेम' कर्म घ फम्मफलंघपेतं कालकतं यदि इमर्ज या इन पिंडपात खादनीयं । भोपनीयं वा तिन्न रतनानं सदाधिस नदक्षिणोदकं पातेत्या देमि इमेनन कम्मेनकालंकतो मनुस्स देसम्पत्तिलभित्या पछिमेभवेखेम निव्यानं भापुनात अन्ताकं घेदपुज निन्यानस्स पच्चमों होनोइदं पुनमार्ग पेतमादिकत्या:- सम्वेममानां भाजेमसठवेसत्ताइद पुजभाग प्रमहति समलभन्तु । .