( २३६ ) भगवान बुद्धदेव ने जो मुभापित पर कहा है, उसके चार भेदों का वर्णन 'सुभासित सुत्त' में इस प्रकार किया है- - सुभासितं उत्तम माहु संतो। धम्म भणेनाधम्म तं दुतीयं । पियं भणेनापियं तं ततीयं । सच्चं भणेनालीकं तं चतुत्य । तमेव भासं भासेय्य ययत्तानं न तापये। परे च न विहिंसेय्य सा वे वाचा सुभासिता ।। पियवाचमेव भासेय्य या वाचा पतिनन्दिता। यं आनादाय पापानि परेसं भासते पित्रं ॥ सच्चं मे अमता वाचा एस धम्मो सनत्तनो। सच्चे अत्थे च धम्मे च पाहु सन्तो पतिहितो। शांत और सुभापित वाक्य को उत्तम कहते हैं, धर्म की बात कहना अधर्म की नहीं कहना यह दूसरा सुभापण है । प्रिय बोलना, अप्रिय नहीं बोलना यह तीसरा सुभापण है । सत्य बोलना असत्य नहीं बोलना यह चौथा सुभापण-है । वही बात बोलनी चाहिए जो अपनी यात्मा के विरुद्ध न हो और जिससे किसी को दुःख न पहुँचे,वही सुभाषित-वाक्य है । वही प्रिय वाक्य बोलना चाहिए जो आनंददायक हो और ऐसा न हो कि दूसरे के लिये प्रिय बोलने से पाप लगे। मेरी वाणी सदा सत्य हो, यह सनातन धर्म है। सत्य, अर्थ और धर्म शांति प्रतिष्ठित हैं। असत्य बोलने के लिये भगवान बुद्धदेव ने यहाँ तक निषेध
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