पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/५

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इसके देखने से आप को मालूम होगा कि महात्मा बुद्धदेव एफ महाविद्वाम्, दार्शनिक और धर्मपरायण महापुरुष थे। उन्होंने ऋपियों के इस कथन का “यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपा- स्यानि नो इतराणि का पूर्ण रूप से पालन किया था। वे संसार को कार्यकारण के अविच्छिन्न नियम में बद्ध और अनादि मानते थे और छ: इंद्रियों को जिन्हें पड़ायतन कहा है, तथा अष्टांग मार्ग को ज्ञान का साधन समझते थे । अष्टांग मार्ग ये हैं- ' . १.सम्यक् दृष्टि-अच्छे प्रकार मनोयोगसे परीक्षकवन कर देखना। २ सम्यक् संकल्प सोच विचार कर किसी काम का संकल्प करना ... जिससे संकल्प का विकल्प न हो। ३. सम्यग् वाचा-सोच विचार कर बात कहना, सत्य बोलना जिससे वचन मिथ्या वा निरर्थक न हो। ४.सम्यक् कर्म =सोच विचार कर नियमानुसार काम करना जिससे कोई कर्म निरर्थक न हो और अवश्य . परिणाम तक पहुंचे और सफल हो। ५ सम्यगाजीव सद्व्यवहार से जीविका निर्वाह करना! ६ सम्यग् व्यायाम शारीरिक और मानसिक व्यायाम को ठीक . ... . . ठोक निरंतर करते रहना जिससे आलस्य त . . आवे, मानसिक और शारीरिक शक्तियों उन्नति . .. . करती जाय और नीरोग रहें। . . ७ सम्यक् स्मृति-स्मृति ठीक रखना अर्थात् वातों को न भूलना। .८ सम्यक् समाधि-सुख दुःख के प्रभावों से प्रभावित न होना । " . .