पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/६८

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.. कुमार महाराज शुद्धोदेन का आशीर्वाद ले अपने प्रासाद में आए और यह सोचने लगे कि कैसे मैं कपिलवस्तु से निकलू। वे प्रत्रज्या ग्रहण करने की उधेड़-बुन में लगे। महाराज शुद्धोदन ने अपने पौत्र उत्पन्न होने के आनंद में मग्न हों आनंद-उत्सव के लिये समाज जोड़ा। प्रसिद्ध प्रसिद्ध गुणी, गायक और नर्तकियाँ वुलाई बदिशक्यते ददितु मा सोति तत्र तद्रध्यसे पाहगृहे नचं निनामिप्ये । पृच्छानि देव जर मझ न भाक्रनेया . . शुभवर्ण यौवनस्थितो भवि नित्यकालं। भारीग्य प्राप्तु भवि नो च भवेत व्याधि [रमितायुपश्च भवि नोंच भवेत मृत्युः ॥ ] सम्पत्तितश्च विपुला नं भवेद्विपत्ती । राषा श्रुणित्वं वचनं परने दुखार्ती। प्रस्थान यासि कुमार नमेन शतिः । परव्याधिकृत्युभवतश्च विपत्तितरच । कल्पस्थितीय ऋषची हि न जातु मुक्ताः ॥ श्रुत्वा पितुर्वचनमत्र कुमार योधी यदिदानिदेव धतुरो घर नो ददासि जरव्याधिमृत्युभवतरच विपतितश्च हन्त अगुव भूपते अपरं बरैक अस्वाध्युतस्य प्रतिसंधि न मे भयेवः । श्रुत्वैषमेव वचनं नरपुंगवस्व तृष्णातनुरष करि दिति पुत्रस्नेह अनुमोदंनीहितकरी वर्गात प्रमोक्ष-- . अभिमाय तुभ्य परिपातु,यन्मत ते . . . . . . ललितविस्तर अध्याय १५