देना आरंभ किया। कुछ दिनों तक शिक्षा प्राप्त कर गौतम ने उस सिद्धांत को समझ रामपुत्र रुद्रक से निवेदन किया--" मैंने श्रद्धा, वीर्य्य, स्मृति और समाधि को प्राप्त कर लिया है । क्या अब कुछ और है जिसकी आप मुझे कृपाकर शिक्षा देना चाहते हैं ?” रुद्रक ने गौतम के इतने कठिन परिश्रम और शीघ श्रद्धादि प्राप्त करने पर विस्मित हो कहा- गौतम ! मैं तो इतना ही जानता था । यदि आपने इनको साक्षात् कर लिया है, तो मेरे पास अब विशेष कुछ नहीं है जिसे मैं आपको सिखाऊँ । यदि आपको मनोनीत हो तो आइए, हम और आप दोनों मिलकर इन विद्यार्थियों को शिक्षादें।" गौतम ने कहा-"आर्म्य ! केवल इतने ही से मेरा काम न चलेगा । मैं तो प्रज्ञा की खोज में घर से निकला हूँ और चाहे जो हो, उसे अवश्य प्राप्त करूँगा । आपकी श्रद्धादि मात्र से निर्वाण की प्राप्ति दुर्लभ है।" गौतम और आचार्य रुद्रक के इस वार्तालाप को आश्रम के पाँच ब्रह्मचारी सुन रहे थे। उन लोगों ने अपने मन में कहा-
- इन्हीं पांघो ब्रह्मचारियों को पंचभद्रपर्गीय भी कहते हैं । नव गया
गौतमबुद्ध ने अनशन त त्याग दिया, तब ये लोग उनका साय छोड़ माथी को पले धार ये और सारनाय में जिसे उस समय ऋषिपतन कहते ने, रहते थे। इन्हीं पंचभद्रवर्गीय ब्रह्मचारियों को महात्मा बुद्ध ने पहले पहल ऋषिपतन में धर्मचक्र का उपदेश किया था । ग्रंथांतर का मत है कि इन पांचो को शुद्धोदन ने भेजा था कि ब्रह्मचारी वनकर युद्धदेव के बाथ रहें और उनको धयावसर प्रवन्या त्याग पृहाश्रम की और प्रवर्तित करने का प्रयत्न करें। यह लोग शाक्यवंशी और कपिलवस्तु के ब्राह्मण- कुमार थे।