पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१०४

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धाम को वा रहत न्यारे किए ते बिलगाय
जगत् सोँ सब जहाँ एती हाय हाय सुनाय।
कबहुँ आवत नगर-कलकल करत सीमा पार;
दूर सोँ पै लगत प्रिय सो ज्यों भ्रमरगुंजार।

खड़ो उत्तर ओर हिमगिरि को अमल प्राकार
नील नभ के बीच निखरो धवल मालाकार।
विदित वसुधा बीच जो अद्भुत अगम्य अपार;
जासु विपुल अधित्यका औ उठे विकट कगार,

शृंग तुंग तुषार मंडित, वक्ष विशद विशाल,
लहलहे अति ढार औ बहु दरी, खोह कराल
जात मानव ध्यान लै ऊँचे चढ़ाय चढ़ाय
अमर धाम तकाय राखत सुरन बीच रमाय।

निर्झरन सोँ खचित औ धन-आवरण सो छाय
श्वेत हिम तर रही काननराजि कहुँ लहराय।
परत नीचे चीड़, अर्जुन, देवदार अपार।
गरज चीतन की परै सुनि, करिन को चिक्कार।

कहुँ चटानन पै चढ़े वनमेष हैं मिमियात।
मारि के किलकार ऊपर गरुड़ हैं मँडरात।
और नीचे हरो पटपर दूर लौं दरसाय,
दववेदिन तर बिछायो मनौ आसन लाय।