पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१०५

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सोधि इनके सामने समथल पहाड़ी एक स्थापकन
मिलि दिव्य मंडप खड़े किए अनेक।
उठत ऊँचे धौरहर नहिँ नेकु लागी बेर।
औ प्रशस्त अलिंद सुन्दर खिँचि गए चौफेर।

खचित चकरी धरन पै हैं चरित बहु प्राचीन।
कतहुँ राधाकृष्ण विहरत गोपिकन में लीन।
द्रौपदी को चीर बँचत कहुँ दुशासन राय।
कहुँ रहे हनुमान सिय सोँ पिय सँदेस सुनाय।

मुख्य तोरणद्वार ऊपर वक्त तुंडहिँ साजि
रहे वैभव बुद्धिदायक श्रीगणेश विराजि।
जाय प्रांगण और उपवन बीच पथ के पार
विमल बादर*[१] को मिले इक और भीतर द्वार।

लसत मर्मर चौखटे पर नील प्रस्तर भार।
लगे चंदन के सुचित्रित अति विचित्र किवार।
मिलैं आगे बृहत् मंडप, कुंज शीतल धाम।
बनीं सीढ़ी, गली, जाली कटोँ अति अभिराम।

खड़े अगणित खंभ, चित्रित छत रही छवि छाय।
फटिक कुंडन सोँ फुहारे छुटत झरी लगाय।


  1. * एक प्रकार का संगमर्मर जिस पर बादल की सी धारियां पड़ी होती हैं।