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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१०६

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लसत इंदीवर तथा अरविंदजाल-प्रसार,
हरित, रक्त, सुवर्णमय जहँ मीन करत विहार।

कहुँ अनेक विशालहग मृग बसि निकुंजन माहि
टुँगत पाटल के कुसुमदल, करत कछु भय नाहि।
कतहुँ ऊँचे ताड़ ऊपर फरफरात विहंग,
इंद्रधनु सम पंख जिनके दिव्य रंग बिरंग।

नील धूम कपोत छज्जन तर सुनहरे जाय
अति सुरक्षित सुघर अपने नीड़ लिए बनाय।
शुचि खङ्जन पै फिरै कहुँ मोर पूँछ पसारि।
बैठि उज्वल छीर सम बक रहे तिन्हैं निहारि।

एक फल सोँ दूसरे पै जाय झूलत कीर।
फिर मुनियाँ चुहचुहाती खिले फूलन तीर।
शान्ति औ सुख साँ वसैं सब जीव मिलि वा धाम।
लेति जाली बीच निर्भय छिपकिली वसि घाम।

हाथ सोँ लै जाति भोजन गिलहरी झटकारि।
केतकी तर बसत कारो नाग फेंटी मारि।
कतहुँ बसि कस्तूरिमृग हैं करत विविध विहार।
वायसन की बोल पै कपि करत कहुँ किलकार।

रहत सुन्दरि सहचरिन सोँ भरो सो रसधाम।
लसति सुखमा बीच आनन की छटा अभिराम।