पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१०९

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झनकाय घुँघुरू बैठि बाहु उठाय भाव बतावतीं।
वीणा मृदंग उठाय कोउ चुपचाप साज मिलावतीं।

नित अगर, धूप, कपूर सोँ उठि धूम छावत है घनी
बगराय केशकलाप बासति कामिनी तहँ आपनो
मृदु अंग लाय उशीर चन्दन, उत्तरीय सजाय कै,
रसबस कुमार यशोधरा के संग बैठत आय के।

जरा, मरण, दुख, रोग, क्लेश को वा थल माहीं
कोऊ कबहूँ नाम लेन पावत है नाहीं।
यदि कोऊ वा रस-समाज में होय खिन्न मन,
परै नृत्य में मंद चरण वा धीमी चितवन
तुरतहि सो वा स्वर्गधाम सोँ जाय निकारी,
जासोँ दुख लखि तासु न होवै कुँवर दुखारी।
नियत नारि बहु दंड देन हित तिनको हेरी
जो कोउ चर्चा करै कतहुँ दुखमय जग केरी,
जहाँ रोग, भय, शोक और पीड़ा हैं छाई,
बहु विलाप सुनि परत चिता दहकति धुधुआई।
गनो जात अपराध नर्तकिन को यह भारी
वेणीबंधन छूटि परै जो केश बिगारी।
नित उठि तोरे जात कुसुम कुम्हिलाने सारे;
औ सब सूखे पात जात करि चुनि चुनि न्यारे।