पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/११०

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तृतीय सर्ग


बसत बुद्ध भगवान् सरस सुखमय थल माहीं।
जरा, मरण, दुख, रोग क्लेश कछु जानत नाहीं।
कबहुँ कबहुँ आभास मात्र इनको सो पावत;
जैसे सुख की नींद कोउ जो सोवत आवत
कबहुँ कबहुँ सो स्वप्न माहि छानत है सागर,
लहत कूल जगि, भार लादि कछु अपने मन पर।
कबहूँ ऐसा होत रहत सोयो कुमारवर
सिर धरि प्यारी यशोधरा के विमल वक्ष पर;
मृदु कर मंद डुलाय करति सो मुख पै बीजन
उठत चौंकि चिल्लाय "जगत् मम! हे व्याकुल जन!
जानत हौं, हैं। सुनत सबै, पहुँच्यौं मैं, भाई!"
मुख पै ताके दिव्य ज्योति तब परति लखाई,
करुणा की मृदु छाया पुनि दरसति तहँ छाई।
अति सशंकहग यशोधरा पूछे अकुलाई
"कौन कष्ट है प्राणनाथ! कछु जात न जानो"।
परै कुँवर उठि, लखै प्रिया को मुख कुम्हिलानो।
आँसु सुखावन हेतु तासु पुनि लागै बिहँसन
बीणा को सुर छेड़न को देवै अनुशासन।