देश देश में केती बाधा विपति विलोकत आवैं।
केते कर मलि मलि पछितावैं, नयनन नीर बहावैं।
पै उपहास-जनक ही केवल लगै विलाप हमारो।
जीवन को ते अति प्रिय मानैं जो असार है सारो।
यह दुख हरिबो मनौ टिकैबो धन तर्जनि दिखराई;
अथवा बहति अपार धार को गहिबो कर फैलाई।
पै तुम त्राण हेतु है। आए, कारज तव नियरानो।
विकल जगत है जोहत तुमको त्रिविध ताप में सानो।
भरमत हैं भवचक्र बीच जड़ अंध जीव ये सारे।
उठौ, उठौ, मायासुत! बनिहै नाहिं बिना उद्धारे।
हम हैं वाहि पवन की बानी जो कबहूँ थिर नाहीं।
घूमौ तुमहुँ, कुँवर! खोजन हित निज विराम जग माहीं।
छाँड़ौ प्रेमजाल प्रेमिन हित, दुख मन में अब लाओ।
वैभव तजौ, विषाद विलोकौ औ निस्तार बताओ।
भरि उसास इन तारन पै हम तव समीप दुख रोवैं।
अब लौं तुम नहिं जानत जग में केतो दुख सब ढोवैं।
लखि तुमको उपहास करत हम जात; गुनौ चित लाई
धोखे की यह छाया है तुम जामें रहे भुलाई।
ता पाछे भइ साँझ, कुँवर बैठ्यो आसन पर
रस-समाज के बीच धरे प्रिय गोपा को कर।
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