धरी रही खिरकी पै बीणा एक उतानी,
परसि प्रभंजन ताहि करत क्रीड़ा मनमानी।
तारन को झननाय निकासत अति अटपट धुनि;
रहे पास जो तिनको केवल परी सोइ सुनि।
कितु कुँवर सिद्धार्थ सुन्यो देवन को गावत।
तिनके ये सब गीत कान में परे यथावत-
हम हैं वाहि पवन की बानी जो इत उत नित धावै:
हा हा करति विराम हेतु पै कतहुँ विराम न पावै।
जैसो पवन गुनौ वैसोई जीवन प्राणिन केरो;
हाहाकार उसासन को है झंझावात धनेरो।
आए है। किहि हेतु कहा ते परत न तुम्हैँ जनाई,
प्रगटत है यह जीवन कित ते और जात कह धाई।
जैसे तुम तैसे हम सब हू जीव शून्य सोँ आवैं।
इन परिवर्तनमय क्लेशन में सुख हम कछू न पावैं।
औ परिवर्तन-रहित भोग मे तुमहूँ को सुख नाहीं।
यदि होती थिर प्रीति कळू सुख कहते हम ता माही।
पै जीवनगति और पवनगति एकहि सी हम पावैं।
हैं सब वस्तु क्षणिक स्वर सम जो तारन सौ छिड़ि आवैं।
हे मायासुत! छानत घूमैं हम वसुधा यह सारी;
यातें हम इन तारन पै हैं रहे उसास निकारी।
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