पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/११४

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(५१)

ह्वैहैं जग में परे न जाने केते प्रानी
हमैं चाहिए प्रेम करन जिनसों हित ठानी।
परति ब्यथा मोहिं जानि आज ऐसी कछु भारी
सकत न तव मृदु अधर जाहि चुंबन सोँ टारी।
चित्रे! तूने बहु देशन की बात सुनाई,
उड़नहार वे अश्व कहाँ यह देहि बताई।
देहुँ भवन यह, पावौं जो तुरंग सो बाँको
घूमत तापै फिरौं लखौं विस्तार धरा को।
इन गरुड़न को राज कहूँ मोसों है भारी
उड़त फिरत जो सदा गगन में पंख पसारी।
मनमानो नित जहाँ चहैं ते घूमै घामैं।
यदि मेरे हू पंख कहूँ वैसे ही जामैं!
उड़ि उड़ि छानौँ हिमगिरि के वे शिखर उच्च तर;
बसौँ जहाँ रविकिरन-ललाई लसति तुहिन पर।
बैठो बैठो तहाँ लखों मैं वसुधा सारी,
अपने चारों ओर दूर लौँ दीठि पसारी।
अबलौं क्यों नहिं कठ्यों देश देखन हित सारे?
फाटक बाहर कहा कहा है परत हमारेँ?"

उत्तर दीनो एक "प्रथम नगरी तव भारी;
ऊँचे मन्दिर, बाग और आमन की बारी।