सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५२)

आगे तिनके परैं खेत सुंदर औ समथल, पुनि नारे,
मैदान तथा कोसन के जङ्गल।
ताके आगे बिबसार को राज, कुँवरवर!
है अपार यह धरा बसत जामें कोटिन नर।"
कह्यो कुँवर "है ठीक! कही छंदकहिँ बुलाई,
लावै रथ सो जोति कालि, देखाँ पुर जाई!"




उद्बोधन


जाय दूत तब वात कही नृप सोँ यह मारी
"महाराज! है तव कुमार की इच्छा भारी,
बाहर के प्राणिन को देखै, मन बहलावै।
कहत कालि मध्याह्न समय रथ जोतो जावै।"

बोल्यो भूप बिचारत, "हाँ! अब तो है अवसर;
किंतु फिरै यह डौंडी मार आज नगर भर,
हाट बाट सब सजैं, रहै ना कछू अरुचिकर
अंध, पंगु, कृश, जराजीर्ण जन कढ़ैं न बाहर।"

जात मार्ग सब झारि और छिरको जल छन छन।
धरैं कुल-बधू दधि, दूर्वा, रोचन निज द्वारन।
घर घर बंदनवार बँधे; लहि रंग सजीले
भीतिन पर के चित्र लगत चटकीले गीले।