पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/११७

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मगन हैं भगिनी हमारी लगी उद्यम माहिँ।
कियो इनको कौन हित हम नेकु जानत नाहिँ।

लखौ, बालक रह्यो यह मो पै सुमन बगराय;
लेहु रथ पै याहि मेरे संग क्यों न बिठाय?
अहा! कैसो सुखद है सब भाँति करिबो राज,
पाय ऐसा देश सुंदर और लोक-समाज।

और है आनंद कैसी सहज सी इक बात,
मग्न जो आनंद में बस मोहिँ लखि ये भ्रात।
बहुत सी हैं बस्तु ऐसी हमैं चहिए नाहिँ
पाय तिनको होय जो ये तुष्ट निज मन माहिँ।

रथ बढ़ाओ, लखैं, छंदक! आज हम दै ध्यान
और सुखमय जगत यह, नहिं रह्यो जाको ज्ञान।"

फाटकन सोँ होत आगे चल्यो रथ गंभीर।
स्रोहती दोउ ओर पथ के लगी भारी भीर।
करत अपने कुँवर को मिलि सकल जयजयकार।
हैँ लखात प्रसन्नमुख सब नृपवचन अनुसार।

किंतु वाही समय निकस्यो झोंपड़ी सोँ आय
एक जर्जर वृद्ध पथ पै धरत डगमग पाय।