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फटे मैले चीथरे तन पै लपेटे घोर;
जाति काहू की न भूलिहु दृष्टि जाकी ओर।
त्वचा झुर्री भरी सूखी खाल सी दरसाति,
झूलि पंजर पै रही पलहीन काहू भाँति।
नई बाकी पीठ है दबि बहु दिनन के भार।
धंसी आँखिन साँ बहै कीचड़ तथा जलधार।
हिलति रहि रहि दाढ़ जामें एकहू नहिँ दाँत।
धूम और उछाह एतो देखि देखि सकात।
लिए लाठी एक निज कंकाल-कर में छीन
टेकिबे हित अंग जर्जर और शक्तिविहीन।
दूसरो कर धरे पसुरिन पै हृदय के पास,
कदै भारी कष्ट सोँ रहि रहि जहाँ सोँ साँस।
क्षीण स्वर साँ कहत है "दाता! सदा जय होय!
देहु कछु, मरि जायहौं अब और हौं दिन दोय।"
खड़ो हाथ पसारि, कफ सोँ गयो कंठ रुँधाय।
कठिन पीड़ा साँ कहरि पुनि कह्यो "कछु मिलि जाय।"
किन्तु ताहि ढकेलि पथ साँ कह्यो लोग रिसाय
"भाग ह्याँ सोँ; नाहिं देखत कुँवर हैं रहे आय?"