सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(६३)

तन पै वास कषाय कुँवर जो धारण करिहै
स्वर्णखचित वस्त्रन सौ सो अनमोल ठहरिहै।
यहै स्वप्न को सार; नृपति! अब बिदा माँगिहैं,
बीते वासर सात बात ये घटन लागिहैं।"
योँ कहि ऋषि भू परसि दंडवत करत सिधाए;
धन दै दूतन हाथ ताहि नृप देन पठाए।
किन्तु प्राय तिन कह्यो "सोम के मन्दिर माहीं
जात लख्यो हम ताहि; गए जब तहँ कोउ नाहीं।
केवल कौशिक एक मिल्यो तहँ पंख हिलावत।"
कबहुँ देवगण भूतल पै याही बिधि आवत।
चकित भयो अति समाचार जब नृप यह पायो;
अति उदास है मंत्रिन को आदेश सुनायो-
"नए भोग रचि और कुँवर को रखो लुभाई।
दूनी चौकी जाय फाटकन पै बैठाई।"


होनी कैसे टरै? कुँवर के मन यह आई,
फाटक बाहर और लखै जग की गति जाई;
देखें जीवन को प्रवाह जो अति सुहात है;
काल-मरुस्थल जाय, हाय! पै सो बिलात है।
बिनती कीन्ही जाय पिता साँ यौँ कुमार तब-
"चहौं देखिबो पुर जैसो है वैसोई अब।