पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३४

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(६९)

बूझत फेरि कुमार "मोहिँ यह देहु बताई,
परत न आवत जानि कहा ये दुख सब, भाई!
छेदक बोल्यो "दबे पाँव ये ऐसे आवत
ज्योँ विषधर चुपचाप आय निज दाँत धँसावत;
अथवा झाड़िन बीच बाघ ज्याँ लुको रहत है,
झपटत है पुनि घात पाय जब जहाँ चहत है;
अथवा जैसे बज्र परत नभ सों घहराई,
दलत काहु को और काहु को जात बचाई।
कह्यो कुँवर "तब तो सब को सब घरी रहत भय?"
सारथि सीस हिलाय कह्यो "यामें का संशय?"
कह्यो कुँवर "तब तै कोऊ यह सकत नाहिँ कहि
सोवत सुख सोँ आज जागि, कालिहु ऐसहि"
"कोउ कहत योँ नाहि, कुँवर! या जग के माहीं;
छन में ह्वैहैं कहा कोउ यह जानत नाहीं।"
कह्यो कुँवर है अंत कहा सब दुःखन केरो
यहै जरा, तन जर्जर औ मन शिथिल घनेरो?"
उत्तर दियो सुजान सारथी "हाँ, कृपालुवर!
इते दिनन लौँ जीवत जो रहि जायँ नारि नर।"
"पै न सकै यदि भोगि ताप कोउ एतो दुःसह,
अथवा भोगत भोगत होवै है जैसो यह;
रहै साँस ही चलत, जाय सो दिन दिन थाको,
अति जर्जर है जाय; कहा पुनि ह्वैहै ताको?"