पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३३

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खसी धनुष की डोर सरिस नस नस भइँ ढीली।
बूतो तन को गयो, नई ग्रीवा गरबीली।
जीवन को सौंदर्य और सुख गयो बिलाई!
है यह रोगी जाहि पीर अति रही सताई।
देखौ, कैसो रहि रहि के ऐंठत सारो तन!
कढ़ी परति हैं आँखि, पीर सोँ टीसत दाँतन।
चाहत मरिबो किंतु मृत्यु तो लौँ नहिं ऐहै
जौ लौँ तन में भोग व्याधि अपनो न पुरैहै।
जोड़ जोड़ के बंधन सारे जब उखारिहै,
नाड़िन सोँ सब प्राणशक्ति क्रमशः निकारिहै,
दैहै याको छाँड़ि, जाय परिहै कहुँ अनतहि।
दूर रहौ, हे कुँवर! ब्याधि कहुँ लगै न आपहि।"
लिए रह्यो पै ताहि, कुँवर बोल्यो यह बानी-
"औरहु ह्वै हैं परे अनेकन ऐसे प्रानी।
बोलौ साँची, कहा याहि गति सब ही पैहैं।
है यह जैसो आज कबहुँ हम हूँ ह्वै जैहैं?"
कह्यो सारथी "ब्याधि कबहुँ है अवसि सतावति;
काहु न काहू रूप माहिँ है सब पै आवति।
मूर्छा औ उन्माद, बात, पित, कफ, जूड़ी, जर,
नाना विधि व्रण, अतीसार औ यकृत, जलंधर
भोगत हैं सब, बचत कतहुँ है कोऊ नाहीं
रक्त मांस के जीव जहाँ लौँ हैं जग माहीं।