पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३६

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सनसनात है चर्म सीझि, करकत हैं बंधन।
परो पातरो धूम, राख कै छितरानो तन!
केवल भूरी भस्म बीच अब जात निहारे
श्वेत अस्थि के खंड-शेष नरतनु के सारे।


कह्यो कुँवर पुनि "कहा यहै सब की गति ह्वैहै?"
छंदक बोल्यो "अंत यहै सब पै बनि ऐहै।
इतो अल्प अवशेष चिता पै रह्यो जासु जरि
भूखे काक अघात न त्यागत 'काँव काँव'
करि खात पियत औ हँसत रह्यो जीवन-अनुरागो
झोंको याही बीच बात को तन में लागो,
अथवा ठोकर लगी, ताल में जाय तरायो,
सर्प डस्यो कहुँ आय, कुपित अरि अस्त्र धँसायो,
सीत समानी अंग, ईंट सिर पै भहरानी,
भयो प्राण को अंत, मरयो तुरतहि सो प्रानी।
पुनि ताको नहिं क्षुधा दुःख औ सुख जग माहीं।
मुखचुंबन औ अनलताप ताको कछु नाहीं।
नहिं चिर्रायन गंध मांस की अपने सूँघत;
और न चंदन अगर चिता के ताको महकत।
स्वादज्ञान रसना सों वाके सबै गयो ढरि;
श्रवणशक्ति नसि गई, नयन की ज्योति गई हरि।