पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३७

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रही न देहहु, होय छार छन माहिँ बिलानी।
जिनसों वाको नेह आज ते विलपत प्रानी।
रक्त मांस के जीवन की सब की गति याही;
ऊँच नीच औ भले बुरे सब मरत सदा ही।
कहत शास्त्र मरि जीव फेर जनमत हैं जाई
नई देह धरि कहाँ कहाँ, को सकै बताई।"


नीर भरे तब नयन कुँवर नभ की दिशि फेर्यो,
दिव्य दया सोँ दीप्त दृष्टि करि ऊपर हेर्यो।
नभ सों भू लौं, भू सों नभ लौ रह्यो निहारी;
मानो ताकी दृष्टि सृष्टि छानति है सारी
पैबे हित सो झलक गई जो कहूँ दूर परि,
जासों दुःखनिदान परत लखि एक एक करि।
प्रेमदाह सों दमक्यो आनन आशापूरो,
उठ्यो पुकारि अधीर "अहो! जग दुख सों झूरो,
रक्त मांस के जीव ज्ञात अज्ञातह सारे!
काल क्लेश के जाल बीच जो परे बेचारे,
देखत हौं या मर्त्यलोक की पीड़ा भारी
औ असारता याके सुख वैभव की सारी,
नीकी तें नीकी याकी वस्तुन को धोखो
और बुरी तें बुरी वस्तु को ताप अनोखो।