पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१३८

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सुख पाछे दुख औ वियोग संयोग अनंतर,
यौवन पाछे जरा, जन्म पै मरण लहत नर।
मरिबे पै पुनि कैसे कैसे जन्म न जाने;
राखत योँ यह चक्र नाधि सब जीव भुलाने
भरमावन को तिनको झूठे आनँद माहीं
औ अनेक संतापन में जो झूठे नाहौँ।
मोहूँ को यह भ्रांतिजाल चाह्यो बिलमावन,
जासोँ जीवन मोहिँ परयो लखि परम सुहावन।
लग्यो मोहिँ जीवनप्रवाह वा सरि सम सुंदर
रविरंजित सुख-शांति-सहित जो बहति निरंतर।
पै अब देखौँ वाकी धारा के हिलोर सब
हरे कछारन सोँ उछरत हैं जात एक ढब
केवल निर्मल नीर आपनो अंत गिरावन
खारे कडुए सागर में जो परम भयावन।
गयो सरकि जो परो रह्यो परदो आँखिन पर।
वैसे ही हैं हमहुँ एक जैसे हैं सब नर,
अपने अपने देवन को जो परे पुकारत,
किंतु सुनत जब नाहिँ कोउ तब हिय में हारत।
ह्वैहै किंतु उपाय अवसि कोऊ जो हेरो तिनके,
मेरे और सबन के दुःखन करो।
चाहत आप सहाय देव सामर्थ्यहीन जब
कहा सकैं करि दीन दुखिन की सुनि पुकार तब?