पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४३

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देखि परैं साँवरे सलोने, कहूँ गोरे मुख,
भ्रुकुटी विशाल बंक, बरुनी बिछी हैं श्याम
अधखुले अधर, दिखात दंतकोर कछु
चुनि धरे मोती मानो रचिबे के हेतु दाम।
कोमल कलाई गोल, छोटे पायँ पैजनी हैँ,
देति झनकार जहाँ हिलै कहूँ कोऊ वाम।
स्वप्न टूटि जात वाको जामें सो रही है पाय
कुँवर रिझाय उपहार कछु अभिराम।

ह्वै के परी लाँबी कोऊ बीना लै कपोल तर,
आँगुरी अरुझि रहीं अब ताइँ तार पर
वाही रूप जैसे जब कढ़ति सो तान रही
झूमि रस जाके झपे लोचन विशाल वर।
लै कै परी कोऊ मृगशावक हिये तें लाय;
सोय गयो टुँगत कुसुम पाय तासु कर।
कुतरो कुसुम लसै कामिनी के कर बीच,
पाती लपटानी हरी हरिन अधर तर।

सखियाँ द्वै आपस में जोरि गर गईँ सोय
गुहत गुहत गुच्छ मोगरे को महकत;
प्रेमपाश-रूप रह्यो बाँधि अंग अंगन जो
अंतस् सो अंतस् मिलावत न सरकत।