पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४२

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(७७)

पै बढ़ि सुंदरि एक साँ एक लखाति अनेक हैँ पास परी।
मोद में माति फिरै अँखियाँ तहँ रूप के राशि के बीच भरी;
रत्न की हाट में दौरति ज्योँ मणि तें मणि ऊपर दीठि ढरी,
लोभि रहै प्रति एक पै जौ लगि और की ओर न जाय ढरी।

सोवतीं सँभार बिनु सोभा सरसाय, गात
आधे खुले गोरे सुकुमार मृदु ओपधर।
चीकने चिकुर कहूँ बँधे हैँ कुसुमदाम,
कारे सटकारे कहूँ लहरत लंक पर।
सोवैं थकि हास औ विलास सोँ पसारि पायँ,
जैसे कलकंठ रसगीत गाय दिन भर।
पंख बीच नाए सिर आपनो लखाति तो लौँ
जौ लौँ न प्रभात पाय खोलन कहत स्वर।

कंचन की दीवट पै दीपक सुगंधभरे
जगमग होत भौन भीतर उजास करि।
आभा रंग रंग की दिखाय रहौँ तासाँ मिलि
किरन मयंक की झरोखन सोँ ढरि ढरि।
जामें है नवेलिन को निखरी निकाई अंग
अंगन की, वसन गए हैं कहूँ नेकु टरि।
उठत उरोज हैं उसासन सोँ बार बार,
सरकि परे हैं हाथ नीचे कहूँ ढीले परि।