पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४७

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यह सोहाग की सेज रही भू माहिं समाई;
द्वारन के पट चीथि उठे आपहि उधिराई।
सुन्योँ दूर पै फेरि श्वेत वृषभहि मैं हँकरत,
और लख्यों सोइ केतु दूर पै दमकत फहरत।
पुनि बानी सुनि परी 'समय आयो नियराई।'
उठ्यो करेजो काँपि, परी जगि मैं अकुलाई।
इन स्वप्नन को अर्थ याहि या तो मैं मरिहौं
अथवा तजिही मोहि, मृत्यु ते बढ़ि दुख भरिहौँ।"


अथवत दिनकर सम आभा मृदु नयनन धारी
रह्यो कुँवर निज दुखित प्रिया की ओर निहारी।
बोल्यो पुनि "हे प्रिये! रहो तुम धीरज धारे,
यदि धीरज कछु मिलै प्रेम में तुम्हें हमारे।
चाहै आगम कछू स्वप्न ये होयँ जनावत
औ देवन को आसन होवै डिग्यो यथावत,
औ निस्तार उपाय जगत चाहत कछु जानन
हम तुम पै जो चहै परै राखौ निश्चय मन-
यशोधरा सोँ रही प्रीति मम जुग जुग जोरी,
औ रहिहै सो सदा, नेकु नहिं ह्वैहै थोरी।
जानति हो तुम केतो सोचत रहौं राति दिन
या जग को निस्तार जाहि देख्यों आँखिन इन।