पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१४८

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समय आयहै ह्वैहै जो कछु होनो सोऊ।
जो कछु हम पै परै सहैं हम तुम मिलि दोऊ।
जो आत्मा मम व्यथित अपरिचित जीवन के हित,
जो परदुख लखि दुखी रहत हौं मैं ऐसो नित,
सोचौ तो, मन मेरो बिहरणशील उच्चतर
रहिहै कैसो लगो सदा घर के प्रानिन पर,
जो साथी मम जीवन के, मोको सुखकारी;
जिनमें सब सोँ बढ़ि अभिन्न तुम मेरी प्यारी।
गर्भ माहि तुम मम शिशु की हो धारनवारी,
जासु आस धरि मिली देह सोँ देह हमारी।
जब मेरो मन भटकत चारों दिशि जल थल पर
बँध्यो प्रेम में जीवन के या भाँति निरंतर-
उड़ति कपोती बँधी प्रेम में ज्यों शिशु के नव-
मन मेरो मँडराय बसत है आय पास तव।
कारण यह, मैं जानत हौं तुमको सुशील अति,
सब सोँ बढ़ि आपनी, परम कोमल उदारमति।
सो अब जो कछु परै आय तुम पै, हे प्यारी!
करि लीजौ तुम ध्यान श्वेत वृष को वा भारी
औ वा रत्ननजड़ी ध्वजा को गइ जो फहरति;
पुनि रखियो मन माहिँ आपने यह निश्चय अति-
सब सोँ बढ़ि के सदा तुम्हेँ चाह्यौं औ चहिहौं,
सब के हित जो वस्तु रह्यौं खोजत औ रहिहौँ,