पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५०

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(८६)

"यहै रैनि सो, गहौ पंथ चाही जो हेरो,
सुख वैभव को अपने वा जगमंगल करो।
चहै करौ तुम राज चहै भटकौ तुम उत इत
मुकुटहीन जनहीन-हाय जासों जग को हित।"

कह्यो सो "मैं अवसि जैहौं घरी पहुँची आय;
रहे, सोवनहारि! तव ये मृदुल अधर बताय
करन को सो कटै जासोँ जगत को भवरोग;
यदपि मोसोँ और तोसोँ ह्वै न जाय वियोग।

गगन की निस्तब्धता में मोहिँ झलकत आज
जगत् में आयों करन हित कौन सो मैं काज।
रहे सबै बताय आयोँ हरन को भवभार।
चहौँ मैं नहि मुकुट जापै वंशगत अधिकार।

तजत हौँ वे देश जिनको जीततो मैं जाय।
नाहिं मेरो खङ्ग खुलि अब चमकिहै तहँ धाय।
रुधिर-सनि रथचक्र मेरे घूमिहैं नहि घोर
रक्तअंकित करन को मम नाम चारो ओर।

फिरन चाहौँ धरा पै मैं धरि अकलुषित पाँव;
धूरि ह्वैहै सेज मेरी, बास सूनो ठाँव।
तुच्छ तें अति तुच्छ मेरे वस्तु रहिहैं संग।
चुनि पुराने चीथरे ही धारिहौँ मैं अंग।