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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५१

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कोउ दैहै खायहौँ सो और व्यंजन नाहिँ।
वास करिहौँ गिरिगुहा औ विपिन झाड़िन माहिँ।
अवसि करिहौँ मैं यहै, है परत मेरे कान
सकल जीवन को जगत के आर्त्तनाद महान्।

हृदय उमगत है दया साँ देखि भवरुज घोर,
दूर जाको करन चाहौँ चलै जहँ लौं जोर।
शमन करिहौँ याहि, जो कछु उचित शमन उपाय
कठिन त्याग, विराग और प्रयत्न सोँ मिलि जाय।

हैं अनेकन देव, इनमें कौन सदय समर्थ?
काहु ने देख्यो इन्हें जो करत सेवा व्यर्थ?
निज उपासक नरन की ये करैं कौन सहाय?
लोग करि आराधना इनकी रहे का पाय?

करत विविध विधान सौँ पूजा अनेक प्रकार,
धरत हैं नैवेद्य बहु, करि मंत्र को उच्चार।
हनत यज्ञन माहिँ बलि के हेतु पशु बिललात
औ उठावैं बड़े मंदिर जहँ पुजारी खात।

विष्णु, शिव औ सूर्य्य की कीनी अनेक पुकार,
पै भले तें भले को नहिं किया इन उद्धार।
नहिँ बचायो ताप तें वा जो सिखावनहार
ठकुरसोहाती, भयस्तुति के अनेक प्रकार।