पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५३

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सोइ परि अवरोह में पुनि कीट उष्मज होत।
हैं जहाँ लौँ जीव ते हैं सकल अपने गोत।
शांप तें या मनुज को कहुँ होय जो उद्धार,
परै हलको सकल प्राणिन को अविद्या-भार,

जासु छाया है दिखावति त्रास सब को घोर,
जीवपीड़ा जासु क्रीड़ा निपट निठुर कठोर।
होति कैसी बात, हा! जो सकत कोउ बचाय!
अवसि ह्वैहै कहुँ न कहुँ तो शरण और उपाय।

रहे पीड़ित शीत सोँ तो लौं मनुज भरपूर
कियो जौ लौं नाहिं कोऊ कठिन चकमक चूर;
और अरणी मथि निकासी अग्नि की चिनगारि
रही इनमें लुकी जो बहु आवरण पट डारि।

रहे अस्फुट शब्द सोँ बिँबियात नर जग माहिँ
वर्ण के संकेत जो लौं कोउ निकास्यो नाहिँ।
रहे टूटत श्वान सम ते मांस ऊपर जाय
नाहिं रोप्यो बीज जो लौं खेत कोउ बनाय।

लही जो कछु वस्तु जग में है मनुज ने चाहि
मिली अपनी खोज, त्याग, प्रयत्न सों है वाहि।
करै भारी त्याग कोऊ और खोजै जाय
तो कदाचित् त्राण को मिलि जाय कोउ उपजाय।