पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५४

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जो सुखी संपन्न होवै लहि सकल सुखसाज;
जन्म जाको होय करिबे हेतु जग में राज;
होय जीवन नाहिँ भारी जाहि काहु प्रकार;
जो लहत आनंद ही सब भांति या संसार;

प्रेम के रसरंग में जो सनो तृप्तिविहीन;
जो न होवै जराजर्जर, शिथिल, चिंतालीन;
दुःख-आश्रित विभव जग के होयँ करत हुलास;
एक सोँ बढ़ि एक जाको सुलभ भोग विलास;

होय मो सम जो, न जाको रहै कोऊ क्लेश;
औ न अपनी रहै चिंता सोच को कछु लेश;
सोच केवल जाहि परदुख देखि कै दिन राति;
सोच केवल यहै 'मैं हूँ मनुज सबकी भाँति,

'होय जो ऐसो, तजन हित होय एता जाहि;
त्यागि सर्वस देय जो निज मनुजप्रेम निबाहि;
खोज में पुनि सत्य के जो लगै आठो याम
और मुक्ति रहस्य खोजै होय सो जा ठाम-

नरक में वा स्वर्ग में चाहै छिपो जहँ होय,
चहै अंतस् में सबन के गुप्त होवै सोय-
दिव्य दृष्टि गड़ाय जो सो देखिहै चहुँ ओर
अवसि टरिहै कबहुँ कतहूँ आवरण यह घोर,