पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५७

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देखौ, जैसे परी नींद में हौ या छन सब
परिहौ याही भाँति मृत्यु गरजति ऐहै जब।
सूखि गयो जब कुसुम कहाँ फिर गंध रूप तब?
चुक्यो तेल जब, ज्योति दीप की गई कहाँ सब?
हे रजनी! तुम और नींद सोँ चापौ पलकन,
अधरन राखौ मूँदि और तुम इनके या छन,
जासोँ नयनन नीर और मुख वचन दीनतर
राखैं मोहिं न रोकि, जावँ मैं तजि अपनो घर।
जेताई सुख मोद लह्यो मैं इनसोँ भारी
तेताई हौं होत सोचि यह बात दुखारी-
मैं, ये औ नर सकल भरत जड़ तरु सम जीवन,
लहत सहत हैं जो वसंत औ शीत ताप तन।
कबहूँ पात झुरात, भरत, हैं लहलहात पुनि;
कबहुँ कुठारप्रहार मूल पै होत परत सुनि।
नहिं जीवन या रूप बितेहौं या जग माहीं।
दिव्य जन्म मम, जाय व्यर्थ सो ऐसो नाहीँ।
विदा लेत हौं आज, अस्तु, हे सकल सुहृद जन!
जौ लौँ है सुखसार-पूर्ण मेरो यह जीवन
है अर्पण के योग्य वस्तु सो, यातें अर्पत।
खोजन हित हौं जात मुक्ति औ गुप्त ज्योति सत्।