पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१५६

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जासोँ निर्मल ज्योति जगै सो अति उजियारी,
लहैं धर्म को मार्ग सकल जग के नर नारी।
अब यह दृढ़ संकल्प; आज सब तजि मैं जैहौं।
जब लौँ मिलिहै नाहिं तत्त्व सो, नहिं फिरि ऐहों।"

योँ कहि नयनन लाय लियो निज प्यारी को कर।
नेहभरी पुनि दीठि विदा हित डारी मुख पर।
करि परिक्रमा तीन सेज की पाँव बढ़ाए,
धकधकाति छाती को कर सोँ दोउ दबाए।
कह्यो "कबहुँ अब नाहिँ सेज पै या पग धरिहौँ।
छानत पथ की धूरि धरातल बीच बिचरिहौँ।"
तीन बेर हठि चल्यो, किंतु सो फिरि फिरि आयो;
ऐसो वाके रूप प्रेम सोँ रह्यो बँधायो!
अंत सीस पट नाय, पलटि आगे पग डारी
आयो जहँ सहचरी सकल सोवति सुकुमारी,
पाय निशा मनु बँधी कमलिनी इत उत सोहति।
गंगा औ गौतमी अधिक सब सौँ मन मोहति।
पुनि तिनकी दिशि हेरि कह्यो "सहचरी हमारी!
तुम सुखदायिनि परम, तजत तुमको दुख भारी।
पै जो तुमको तजौँ नाहिं तो अंत कहा है?
जरा, क्लेश अनिवार्य, मरण विकराल महा है।