पै इनसों में प्रेम करत निज आनँद सोँ बढ़ि-
औ तिनहू के आनँद सोँ बढ़ि-यातेँ अब कढ़ि
जात उधारन हेतु इन्हैं औ प्राणिन को सब।
लाओ कंथक तुरत, विलंब न नेकु करौ अब।"
"जो आज्ञा” कहि गयो अश्वशाला में छंदक,
तुरत निकासी बागडोर चाँदी की झकझक।
तंग पलानी कसि कंथक को लायो बाहर
फाटक ढिग, जहँ कुँवर रह्यो ठाढ़ो वा अवसर।
देखि प्रभुहि निज अति प्रसन्न ह्वै हय हिहनानो,
निरखत ताकी ओर बढ़ावत मुहँ नियरानो।
सोवत जे जे रहे गई यह ध्वनि तिन लौँ, पर
रखे देवगण मूँदि कान तिनके वा अवसर।
थपथपाय कर कुँवर कंठ पै वाके फेरे,
बोल्यो पुनि "अब धीर धरौ, हे कंथक मेरे!
आज मोहिं ले चलौ जहाँ लौं बनै निरंतर,
सत्य खोजिबे हेतु कढ़त हौं आज छाँड़ि घर।
कहाँ खोज को अंत होयहै, यह नहिं जानत;
बिनु पाए नहिं अंत यहै निश्चय मन ठानत।
सो अब साहस करौ करारो, तुरग हठीले!
खङ्गधार जो बिछै पंथ पग परै न ढीले।
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६०
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९६)