पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६१

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थमै न तेरो वेग, रुकै ना गति कहुँ तेरी,
खाई खंदक परैं, चहै पत्थर की ढेरी।
जा छन बोलौं 'बढ़ौ' पवन हू पाछे पारौ,
अनलतेज औ वायुवेग तुम या छन धारौ।
पहुँचाओ निज प्रभुहि, होयही तुमहू भागी
महत्कार्य की महिमा के या जग हित लागी।
चलत आज मैं, गुनौ, नाहिं केवल मनुजन हित
पै सब प्राणिन हेतु सहत दुख जो हम सम नित
किंतु सकत कहि नाहिं, मरत निशि दिन योँ ही सब।
अस्तु, पराक्रम सहित प्रभुहि लै चलौ तुरत अब"।

धीरे सोँ पुनि उछरि पीठ पै वाके आयो,
केसर पै कर फेरि कंठ वाको सहरायो।
बढ़्यो अश्व अब, परीँ टाप पथरन पै वाकी,
बागडोर की कड़ी हिली चमकी अति बाँकी।
पै 'टप टप' औ खनक नाहिं कैछि सुनि पाई,
आय देवगण दिए मार्ग में सुमन बिछाई।
जब तोरण के निकट भूमि पै चलि पग डारे
माया के पट विविध यक्षगण तहाँ पसारे।
या विधि आहट बिना कुँवर तोरण पै आए,
पीतर के तिहरे कपाट जहँ रहे भिड़ाए।