पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६५

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पै बचत झाडिन सोँ कटीली बेर की औ बाँस की
औ चढ़त टीलन पै, कढ़त पुनि भूमि पै सम पास की।

नव कलित काननकुसुम वह जो अचलअंचल ढार है,
चलि देखिए वटकुंज भीतर जो गुफा को द्वार है।
या सरिस पावन और थल नहिं सकल भूतल पाइए;
करि विमल मन सब भाँति आदर सहित सीस नवाइए।

या ठौर श्रीभगवान बसि काटत कराल निदाघ को,
जलधारमय घनघोर पावस, कठिन जाड़ो माघ को।
सब लोक हित धरि मलिन वसन कषाय कोमल गात पै
माँगे मिलति जो भीख पलटि पसारि पावत पात पै।

तृण डासि सोवत रैन में घर बार स्वजन बिहाय कै।
हुहुँआत चहुँ दिशि स्यार, तड़पत बाघ बनहिँ कँपाय कै।
या भाँति जगदाराध्य बितवत ठौर या दिन रात हैं।
सुखभोग को सुकुमार तन तप साँ तपावत जात हैँ।

व्रत नियम औ उपवास नाना करत, धारत ध्यान हैँ;
लावत अखंड समाधि आसन मारि मूर्ति समान हैँ।
चढ़ि जानु ऊपर कूदि कबहूँ धाय जाति गिलाय हैं।
कन चुनत ढीठ कपोत कर ढिग कबहुँ कंठ हिलाय हैं।