पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६४

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पंचम सर्ग




प्रव्रज्या


जहँ राजगृह है राजधानी लसति घिरि बन सोँ घने
तहँ पाँच पर्वत परत पावन पास पास सुहावने-
अति सघन ताल-तमाल-मंडित एक तो 'वैभार' है;
दूजो 'विपुलगिरि', बहति जा तर पातरी सरिधार है;

पुनि सघन छाया को 'तपोवन' जहँ सरोवर हैं भरे,
प्रतिबिंब श्याम शिलान के दरसात हैं जिनमें परे;
ऊपर चटानन सोँ शिलाजतु रसत जहाँ पसीजि कै,
नीचे सलिल को परसि रहि रहि डार झूमति भीजि कै;

चलि अग्निदिशि की और सुंदर 'शैलगिरि' मन को हरै,
उठि 'गृध्रकूट' सुशृंग जाको दूर ही सोँ लखि परै;
प्राची दिशा की ओर सोहत 'रत्नगिरि' निखरो खरो,
जो विटप वीरुध सोँ हरो, बहु रूप रत्नन सोँ भरो।

पथ विकट पथरीलो परै जो फेर को आओ धरे,
पग धरत बाड़न में कुसुम के, आम जामुन के तरे,