पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६७

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पुलकित पुनि लखि परत लहलहे खेत मनोहर
चुंबन सोँ अनुरागवती ऊषा के सुंदर। प्राची आशा कहन लगति दिनराज अवाई;
पहले केवल धुंध सरीखो परत लखाई।
किंतु पुकारै अरुणचूड़ जौ लौँ पुर भीतर
आभा निखरति शुभ्र रेख सी शैलशीर्ष पर।
लागति पसरन होति शुभ्रतर सो अब क्रम क्रम
देखत देखत होति स्वर्णपीताभ धार सम।
अरुण, नील औ पीत होत घनखंड मनोरम,
काहू पै चढ़ि जाति सुनहरी गोट चमाचम।
सब जग जीवनमूल प्रतापी परम प्रभाकर
दिनपति प्रगटत धारि ज्योतिपरिधान मनोहर।


ऋषि समान करि नित्यक्रिया सवितहि सिर नावत;
लै पुनि भिक्षापात्र पाय पुर और बढ़ावत।
बीथी बीथी फिरत यती को बानो धारे,
जो कछु जो दै देत लेत सो हाथ पसारे।
भिक्षा सोँ भरि जात पात्र सो जहाँ पसारत,
'महाराज! यह लेहु' किते रहि जात पुकारत
देखि दिव्य सो रूप सौम्य, लोचनसुखकारी
जहँ के तहँ रहि जात ठगे से पुरनरनारी।