पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१६८

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दूर दूर सोँ पुत्रवती बहु धावति आवैं,
प्रभु के पायँन पारि सिसुन, बहु बार मनावैं।
लेति चरणरज कोउ, कोउ पट सीस लगावति।
अति मीठे पकवान और जल कोऊ लावति।

कबहुँ कबहुँ प्रभु जात रहत अति मधुर मंद गति
दिव्य दया सोँ दीप्त, ध्यान मेँ भए लीन अति।
रूप अनूप लुभाय लाय टक रहैं कुमारी,
प्रेम भक्ति सोँ भरी दीठि निज तिन पै डारी।
मानो रूप समाय रह्यो जो नयनन मेँ अति
सम्मुख लखि रहि जाति चाह सोँ ताको चितवति।
पै पकरे निज पंथ जात प्रभु सीस नवाए,
धारे वसन कषाय, भीख हित कर फैलाए।
मृदु वचनन सोँ करि सब को परितोष यथावत्
फिरत गिरिव्रज ओर, आय पुनि ध्यान लगावत।
जेते जोगी जती बसत तिनके ढिग बहु छिन
बैठि सुनत बहु ज्ञान, सत्यपथ पूछत प्रति दिन।

शांत कुंजन बसत तापस रत्नगिरि की ओर हैं,
गनत हैं या तनहिं जो चैतन्य को रिपु घोर हैं।
कहत इंद्रिय प्रबल पशु हैं, लाय वश में मारिए,
क्लेश दै बहु भाँति इनको दमन योँ करि डारिए