पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१७४

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चहत नरकहि न्यून करिबो नरक आप बनाय।
माति तप उन्माद में ये रचत मुक्ति उपाय!


बोलि उठ्यो सिद्धार्थ "अहो! वनकुसुम मनोहर!
जोहत कोमल खिले मुखन जो उदित प्रभाकर,
ज्योति पाय हरषाय श्वाससौरभ संचारत,
रजत, स्वर्ण, अरुणाभ नवल परिधान सँवारत,
तुम में तें कोउ जीवन नहिं माटी करि डारत,
नहिं अपनो हठि रूप मनोहर कोउ बिगारत।
एहो, ताल! विशाल भाल जो रह्यो उठाई,
चाहत भेदन गगन, पियत सो पवन अघाई,
शीतल नीरधि नील अंक जो आवति परसति
मंजु मलयगिरि गंधभार भरि मंद मंद गति।
जानत ऐसो भेद कौन जासोँ, हे प्रिय द्रुम!
अंकुर तें फलकाल ताइँ है। रहत तुष्ट तुम?
पंख सरीखे पातन सोँ मर्मर ध्वनि काढ़त,
अट्टहास साँ हँसत हँसत तुम जग में बाढ़त।
तरुडारन पै बिहरनहारे, हे बिहंगगन!
-शुक, सारिका, कपोत, शिखी, पिक, कोकिल, खंजन-
तिरस्कार निज जीवन को नहिं तुमहुँ करत हौ,
अधिक सुखन की आस मारि तन मन न मरत हौ।