पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१७३

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धारन हू में है समर्थ वा जीवहि नाहीँ
खोजत जो निज पंथ, रह्यो अड़ि बीचहि माहीँ।
ज्योँ कोउ तीखो तुरग बढ़त जो आपहि पथ पर
खाय खाय कै एड़ भयो बीचहिं मेँ जर्जर।
ढाहत हौ क्योँ भवन जीव को यह बरिआईँ,
पूर्व कर्म अनुसार बसे हम जामैँ आई,
जाके द्वारन साँ प्रकाश कछु हम हैँ पावत,
सूझत है यह हमैं दीठि निज जबै उठावत
सुप्रभात कब होय घोर तम पुंज नसाई,
सुंदर, सूधो, सुगम मार्ग कित तें ह्वै जाई।"

योगी बोले हारि "पंथ है यहै हमारो;
चलिहैँ यापै अंत ताइँ, सहिहैँ दुख सारो।
जानत यातें सुगम मार्ग यदि होह, बताओ
नातौ बस, आनंद रहौ, इत ध्यान न लाओ।"

बढ्यो आगे खिन्नमन सो देखि कै यह बात,
मृत्युभय नर करत ऐसो भय करत भय खात।
प्रीति जीवन सोँ करत योँ प्रीति करत सकात;
करत व्याकुल ताहि, तप की सहत साँसति गात।
करन चहत प्रसन्न या विधि देवगणहि रिझाय,
सकत देखि प्रसन्न मानव सृष्टि जो नहिं, हाय!