पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८०

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मिल्यो न ऐसो मोहिँ कोउ घर, हे प्रभु ज्ञानी!
कबहुँ न होवै मरो जहाँ पै कोऊ प्रानी।
नदी किनारे नरकट के वा झापस माहीँ
दीनो मैं शिशु डारि हँसत बोलत जो नाहीं।
तव पाँयन ढिग फेरि, प्रभो! बिनवति हौं आई,
सरसों मिलिहै कहाँ देहु, प्रभु, यही बताई।"

बोले प्रभु "जो मिलत न सो तू हेरति हारी,
पै हेरत में लही एक कटु औषध भारी।
कालि लख्यो निज शिशुहि महानिद्रा में सोवत,
देखति है तू आज सबै सोई दुख रोवत।
सब पै जो दुख परत लगत हरुओ जग माहीं,
बहुतन में बँटि लगत एक को गरुओ नाहीं।
थमै तिहारी आँसु देहुँ तो रक्तहिं गारी,
पै नहिं जानत मर्म मृत्यु को कोउ नरनारी,
प्रेममाधुरी बीच देति जो कटु विष घोरी,
जो नित बलि के हेतु नरन ले जात बटोरी
फूलन सोँ लहलही वाटिका बीच निकारत-
मूक पशुन इन लिए जात ज्यों, लखौ, हँकारत।
खोजत हौं मैं सोइ रहस्य, हे भगिनी मेरी!
लै अपनो शिशु जाय क्रिया करु तू वा केरी।"