पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८१

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यज्ञबलि-दर्शन


पशुपालन संग प्रवेश कियो पुर में प्रभु देखत देखत जाय,
ढरि कंचन सी किरनैँ रवि की जहँ सोन को नीर रहीं झलकार
सब बीथिन में पुर की परिकै परछाई रहीं अति दीरघ नाय,
पुरद्वार के पार जहाँ प्रतिहार खड़े बहु दीरघ दंड उठाय।

पशु लै प्रभु को तिन पावत देखि दयो पथ सादर मौनहिं धारि
सब हाट की बाट में बैठनहार लई बगरी निज वस्तुन टारि।
झगरो निज रोकि कै गाहक श्री बनियाहु रहे मृदु रूप निहारि
कर बीच हथौड़ो उठाय लुहार गयो रहि नाहिँ सक्यो घन मारि

तनिबो तजि ताकि जुलाह रहे, बहु लेखक लेखनि हाथ उठाय।
गनिबो निज पैसन को चकराय गयो सुधि खोय सराफ भुलाय।
नहिँ अन्नकी राशि काहुकी आँखि, रहे सुख सॉ मिलि साँड़ चबाय
मटकी पर धार चली पय की बहि, ग्वाल रहे प्रभु पै टक लाय।

पुरनारि जुरी बहु बूझति हैं "बलि हेतु लिए पशु को यह जात?
शुचि शांतिभरी मृदुता मुख पै, अति कोमल मंजु मनोहर गात।
कहु जाति कहा इनकी? इन पाए कहाँ अति सुंदर नैन लजात
तन धारि अनंग किधौं मघवा यह जात चलो गति मंद लखात?"

कोउ भाखत "सिद्ध सोई यह जो तिन योगिन संग बसै गिरिपार।'
प्रभु जात चले निज पंथ गहे मन माहिं बिचारत याहि प्रकार-