करौ तुम मम भवन सुंदरि बधू सहित निवास।"
कह्यो दृढ़ संकल्प निज सिद्धार्थ होय, उदास-
"रहीँ मोको वस्तु ये सब सुलभ, नृपति उदार!
सत्य पथ की खोज में हौं तज्यों सब घर बार।
खोज में हौँ और रहिहौँ ताहि की चित लाय,
नाहिं थमिहौँ इंद्र हू को भवन जो मिलि जाय।
लेन आवैं अप्सरा मोहिं रत्नमंडित द्वार
किंतु निज संकल्प तें ना टरौं काहु प्रकार।
जात हौं मैं धर्मभवन उठायबे हित जोहि
गया के घन बनन में जहँ बोध ह्वै है मोहिं।
ऋषिन को करि संग देख्यों छानि शास्त्र पुरान,
किए नाना भाँति के व्रत और क्लेशविधान,
सत्य की पै ज्योति मोकोँ मिली अब लौं नाहिं;
ज्योति ऐसी है अवसि, यह उठत है मन माहिं।
लह्यौं जो मैं ताहि तो पुनि पलटि या थल आय
प्रेम को फल अवसि दै हौँ तुम्हें, हे नरराय!"
तीन बार प्रदक्षिणा प्रभु की करी नरपाल;
बिदा दीनी फेरि सादर पाँव पै धरि भाल।
चले प्रभु उरुविल्व दिशि संतोष ना कछु पाय;
परो पीरो वदन तप साँ, देह रही झुराय।
पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८८
दिखावट
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१२५)