पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१८७

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याके सम्मुख डारि देहुँ जो मैं अपनो तन
मोहिं छाँड़ि नहिँ हानि और काहू की या छन।
अपनी हू तो हानि नाहिँ कछु मोहि दिखाती
जीवन प्रति निज नेह निबाहौं जो या भाँती।
योँ कहि अपनो उत्तरीय उष्णीष बिहाई
उतरि करारे सोँ बाघिन ढिग पहुँचे जाई।
बोले "ले यह, मातु! मांस तेरे हित आयो।"
भूखी बाघिन झपटि तिन्हें तहँ तुरत गिरायो।
कुटिल नखन सोँ तन बिदारि, मुँह दियो लगाई,
बोरि रक्त में दाँत, मांस सब गई चबाई।
हिसातप्त कराल श्वास वा पशु की जाई
प्रभु के अंतिम प्रेम-उसासन माहि समाई।

रह्यो प्रभु को सदा याही भाँति हृदय उदार।
बरजि पशुबलि बुद्ध कीनो दयाधर्म-प्रचार।
जानि प्रभु को राजकुल औ त्याग अमित अपार
बिबसार नरेश कीनी विनय यों बहु बार-

"राजकुल पलि, रहे ऐसे कठिन नियम निबाहि!
धरत जो कर राजदंड न भीख सोहति ताहि।
रहौ मेरे पास चलि, नहि मोहिं कोउ संतान।
जिऔँ जब लौँ तुम सिखायो प्रजा को मम ज्ञान।