पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९२

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भूरे झरत जो पात तहँ जहँ बुद्ध तप में चूर हैँ,
ऋतुराज के ते लहलहेपन सोँ न एते दूर हैं
जेते भए प्रभु भिन्न हैं निज रूप सोँ वा पाछिले
निज राज के जब वे रहे युवराज यौवन सोँ खिले!

घोर तप सोँ छीन है प्रभु एक दिन मुरछाय
गिरे धरती पै मृतक से सकल चेत विहाय।
जानि परति न साँस औ ना रक्त को संचार।
परी पीरी देह, निश्चल परो राजकुमार।

कढ़्यो वा मग सोँ गड़रियो एक वाही काल,
लख्यो सो सिद्धार्थ को तहँ परो विकल विहाल,
मुँदे दोऊ नयन, पीरा अधर पै दरसाति,
धूप सिर पै परि रही मध्याह्न की अति ताति।

देखि यह सो हरी जामुनडार तहँ बहु लाय,
गाँछि तिनको छाय मुख पै छाहँ कीनी आय।
दूर सोँ मुख में दियो दुहि उष्ण दूध सकात-
शूद्र कैसे करै साहस छुवन को शुचि गात?

तुरत जामुन डार पनपीँ नयो जीवन पाय,
उठीं कोमल दलन सों गुछि, फूल फल सोँ छाय;
मनो चिकने पाट को है तनो चित्र वितान,
रँग विरंगी झालरन सोँ सजो एक समान।