पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१३०)

करी बहु अजपाल पूजा देव गुनि कोउ ताहि।
स्वस्थ है उठि कह्यो प्रभु "दे दूध लोटे माहिं।"
कह्यो सो कर जारि "कैसे देहुँ कृपानिधान?
शूद्र हौँ मैं अधम, देखत आप हैं, भगवान!"

कह्यो जगदाराध्य "कैसी कहत हौ यह बात?
याचना औ दयानाते जीव सब हैं भ्रात।
वर्णभेद न रक्त में है बहत एकहि रंग;
अश्रु मे नहिँ जाति, खारो ढरत एकहि ढंग।

नाहिँ जनमत कोउ दीने तिलक अपने भाल,
रहत काँधे पै जनेऊ नाहिं जनमत काल।
करत जो सत्कर्म साँचो सोइ द्विज जग माहिँ,
करत जो दुष्कर्म सो है वृषल, संशय नाहिँ।

देहि भैया! दूध मो को त्यागि भेद विचार;
सफल ह्वैहौँ, अवसि तेरो होयहै उपकार।"
सुनत प्रभु के वचन ऐसे तुरत सो अजपाल,
दियो लोटो टारि प्रभु पै, भयो परम निहाल।