पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९७

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तो या तरुतर आय फेरि निज सीस नवैहौँ,
कनक कटोरे माहिं खीर अनमोल चढ़ेहौँ।"

सफल कामना भई, भयो इक बालक सुंदर।
तीन मास को होंत ताहि निकसी लै बाहर।
चली मंद गति, भक्तिभरी, सामग्री साजे
निर्जन वन की ओर जहाँ वनदेव विराजे।
एक हाथ सोँ थामे सारी के अंचल तर
बड़ी साध को प्यारो अपनो शिशु सो सुंदर;
दूजो कर मुरि उठ्यो सीस लौं, रह्यो सँभारी
कनक-कटोरन सजी खीर जामें सो थारी।

दासी राधा गई रही पहिले सौँ वा थल
वेदी झारि बहारि लीपि करिबे को निर्मल।
दौरति आई लगी कहन "हे स्वामिनि मेरी!
प्रगट भए वनदेव लेन पूजा यह तेरी।
साक्षात् तहँ आय विराजत आसन मारे,
ध्यान लाय, दोउ हाथ जानु के ऊपर धारे।
दिव्य ज्योति दृग माहिं, अलौकिक तेज भाल पर
भव्य भाव युत लसत सौम्य शुचि मूर्ति मनोहर।
हे स्वामिनि! कलिकाल माहिं याँ सम्मुख आई
बड़े भाग्य सौँ देत देव प्रत्यक्ष दिखाई।"